अपनी बात

यों तो अब तक प्रकाशित ग्यारह में से नौ पुस्तकों के पहले पन्ने पर हर बार अपनी बात लिखता रहा हूँ यह बताने के लिये कि इस बार की इस कृति को मैंने क्यों लिखा है। लेकिन बात है कि उस पर विराम ही नहीं लगता। लिख लेने के बाद और छप जाने के बाद भी पता नहीं क्यों हर बार यही लगता है कि जो कहना था वह तो कहा ही नहीं गया और वास्तव में वह बात हर बार छूटती ही चली गई कि किस प्रकार दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालिज का यह तृतीय वर्ष का बीo एसo सीo का विद्यार्थी कैलकुलस, कैमिस्ट्री, फिजिक्स और गणित के सूत्रों के साथ-साथ साहित्य की बारीकियों में उलझता चला गया।

दरअसल, साहित्य में समाई हुई मानवता के सूत्र इतने प्रभावशाली होते हैं कि वे किसी भी भावुक व्यक्ति के मन में बहती संवेदनाओं की नदी की धारा को एक नया मोड़ दे सकते हैं और वह व्यक्ति अपने कैरियर वाली सड़क को छोड़ कर उस राह पर चल पड़ता है जिस पर पूर्व में चलने वाले साहित्यकारों के ऐतिहासिक साहित्य सृजन के बाद भी उनके हाथ केवल एक बड़ा शून्य ही आया, जी हाँ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं स्व‐ मुंशी प्रेमचंद और शरत बाबू (शरत चंद्र)। लेकिन मानना पड़ेगा कि अच्छे साहित्य में होती है वह अदृश्य शक्ति जो किसी की जीवनधारा का रुख मोड़ सकती है।

आरम्भ में हिन्दी साहित्य की जिन दो पुस्तकों ने मेरे मन को अन्दर तक छुआ वे थीं- प्रेमचन्द जी की ‘निर्मला’ और श्री शरतचन्द्र की ‘देवदास’। देवदास को पढ़ने के बाद तो मन पर ऐसी प्रतिक्रिया हुई कि उसने एक लम्बे अरसे के लिये मेरी हंसी छीन ली। और ‘निर्मला’ ने बताया कि समाज में स्त्री, पुरूष तथा परिवार के अन्य सदस्य कैसी-कैसी पीड़ा को भोगते हैं। विशेषकर स्त्री जिसका एकमात्र कसूर होता है उसका स्त्री होना। जिसे प्रेमचन्द जी के जमाने में एक खूँटे से खोलकर दूसरे खूँटे से बाँध दिया जाता था। विशेषकर उन परिवारों में जिनमें कन्यापक्ष गले तक निर्धनता के दलदल में फंसा होता था और दूसरी ओर घाघ प्रवृति के व्यक्ति उसका लाभ उठाकर उसे ब्याह कर ले जाते थे।

परिस्थितियों से लोहा लेते हुए उस राह को भी नहीं छोड़ा जिससे जीवन यापन होना था, कुछ आश्रितों के पेट भरने थे और मन को भी बचाये रखना था जिसमें एक ललक बरकरार थी एक ऐसा साहित्य रचने की जो मानव मन की संवेदनाओं को झंकारता चले और आदमी को आदमी बनाये रखे। तो इस प्रकार जब कभी भी आस-पास घटती कोई घटना मन को छूती तो अपनी डायरी में दर्ज हो जाती इस उम्मीद में कि जब कभी जीवन की आपाधापी से समय मिलेगा तो डायरी के इन पन्नों को भी रास्ता मिलेगा और डायरी में कैद शब्दों को भी पंख मिलेंगे उड़ने के लिये फड़फड़ाने के लिये। और इस तरह जीवन सफर को बरसों के मीटर से नापते-नापते यह अवसर आया सन् 2005 में जब मेरी पहली कविता की पुस्तक ‘थोड़ी सी रोशनी’ प्रकाशित हुई जिसमें मेरी 51 कवितायें हैं।

उसके बाद लेखन निरंतर चलता रहा और अभी हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी 78 कविताओं वाली दसवीं काव्य कृति ‘जाती हुई धूप’। 80 की उमर में मुझे इस संकलन का यही नाम सटीक लगा। अब तक के सफर में व्यापार और साहित्य समानांतर चलते रहे, साहित्यक सफर इस छोटी सी परिचय पत्रिका में दर्ज है।